राम और रावण का युद्ध समाप्त हो चूका था। रावण मृत्यु अवस्था मे युद्धभूमि पर पड़ा था। परन्तु राम के चहरे पर ख़ुशी के भाव और आँखों मे विजय की चमक नहीं थी। यह देख लक्ष्मण को हैरानी हुई। वह राम से कुछ पूछते उससे पहले ही राम ने कहा – लक्ष्मण हमारी विजय अवश्य हुई हैं परन्तु आज यह संसार एक महान पंडित और परम विद्वान् विहीन होने जा रहा हैं। तुम जाकर महान ज्ञानी रावण से राजनीति का गुरुमंत्र प्राप्त करो। लक्ष्मण रण क्षेत्र मे पड़े रावण के सिरहाने जाकर खड़े हो गये और बोले – हे महान विद्वान् रावण मैं राम का छोटा भाई लक्ष्मण आपसे शिक्षा ग्रहण करने आया हूँ। मुझे उपदेश दीजिये। लक्ष्मण की बात सुनकर रावण बोला – जिस व्यक्ति मे विनय ना हो, वह शिष्य बनने योग्य नहीं होता
तुम अस्त्र लिए मेरे सिरहाने खड़े हो, क्या यही शिस्टाचार हैं? लक्ष्मण तुरंत अस्त्र छोड़कर रावण के पैरो की ओर हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब रावण उपदेश देते हुए बोला – लक्ष्मण ! तुम ऐसे समय मे आये हो, जब मेरा जीवन दीप बुझने ही वाला हैं। मैं तुम्हे पूरी विद्या नहीं पढ़ा सकता, फिर भी सम्पूर्ण विद्याओ का निचोड़, अपने जीवन के अनुभव के आधार पर मैं तुम्हे बताता हूँ। कुछ समय पश्चात रावण ने बताया – मैंने कठोर तपस्या करके अत्यधिक बल प्राप्त किया और उसका प्रयोग मैंने अपने स्वार्थ के लिए किया।
इससे मेरे अनेक शत्रु हो गये। यहाँ तक की मेरा भाई विभीषण भी मेरा शत्रु हो गया। मैंने कभी भी अपनी शक्ति का प्रयोग दुसरो की भलाई के लिए नहीं किया। मैंने अपने शत्रु को सदा स्वयं से छोटा और निर्बल समझा। ऐसी भूल मे आज मैं इस परिस्थिति मे पहुंच गया हूँ। अपने शत्रु को कभी छोटा नहीं समझना चाहिए। सुनो लक्ष्मण ! जीवन मे मेरी तीन इच्छाये थी जिन्हे पूरा करने की मेरे पास शक्ति और सामर्थ्य भी थी। लेकिन मैं उन्हें पूरा नहीं कर सका। वे इच्छाएं थी – सीढ़ी द्वारा स्वर्ग और पृथ्वी को मिलाना, अग्नि को धुएँ से मुक्त करना और मृत्यु को नष्ट कर देना। ये तीनो बाते मेरे लिए सरल थी।
स्वर्ग तक सीढ़ी लगाने का विज्ञान मैं जनता था, अग्नि को धुए से मुक्त करने की विद्या मुझे आती थी और मृत्यु मेरे कारागार मे कैद थी। मैं जब चाहता उसे नष्ट कर सकता था। लेकिन मैं सोचता था- जल्दी क्या हैं? ये काम कल कर लूंगा। यही सोचते सोचते मेरा काल आ गया लेकिन कल कभी नहीं आया। मेरा गुरुमंत्र यही हैं की “इंसान को आज का काम कल पर कभी नहीं छोड़ना चाहिए। यह वाक्य कहते कहते रावण ने सदा के लिए अपने नेत्र बंद कर लिए और लक्ष्मण उस महाज्ञानी को शीश झुकाकर अपने भाई श्रीराम के पास लौट आये।

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