चर्र चरर चूं , क्रेशर की आवाज एक निश्चित अंतराल पर सुनाई देती थी । बीच बीच में क्रेशर को चलाने वाले पट्टे का जोड़ जो बहुत ही युक्ति और जुगाड से जोड़ा गया था ठाक ठकम , ठाक ठकम की आवाज के साथ एक रिदम बनाता हुआ चल रहा था । पुरानी दीवाल के बगल में चलने से पट्टे की रगड़ खा कर दीवाल में उसके बराबर से गहरे चिह्न बन गए थे । पट्टा उतर न जाए इसके लिए महेशू बार बार उस पर चोटा गिरा दिया करता था । नियमित अंतराल से । एक बांस का डंडा भी जमीन में खड़ा था जो पट्टे को अपनी धुरी पर चलने के लिए बाध्य किया करता था । मानो उसके लिए मार्गदर्शक की भूमिका निभा रहा हो ।
सनेही मौर्य ने इस साल ही गुड़ बनाने के लिए गन्ने की पेराई हेतु क्रेशर खरीदा था । गांव के लोग यह देखकर बड़े उत्साहित थे कि अब दिन भर गन्ने की पेराई में लगने वाला वक़्त बिल्कुल कम हो जाएगा । बैलों को भी आराम और समय जो बचे सो अलग । सनेही ने बाकायदा सबको कहला भेजा दिया था कि सात किलो गुड़ पर एक किलो गुड़ लिया करेंगे ,यह अलग बात है कि समय के साथ इसका रेट बढ़कर पांच किलो पर एक किलो हो गया । और आपको कुछ नहीं करना है । बस भट्ठे में आग झोंकने का काम करना रहेगा ।
खूब ठंड पड़ रही थी , सनेही मौर्य का पूरा कुनबा गोपाल मिसिर के खेत में सुबह ही गन्ना छीलने आ पंहुचा था । आज मिसिर की बारी थी । सुबह होते होते खेत में काफी लोग इकट्ठा हो गए थे । अपने अपने हिस्से का गन्ना क्रेशर पर पंहुचा रहे थे । तय पाया गया था कि चारे वाला भाग उनका रहेगा , बाकी का मालिक का । भले ही इसमें थोड़ी ढील तो लोग ले ही लिया करते थे । उस दिन का खेत मालिक भी इस घटना को नजर अंदाज कर ही दिया करता था । यह एक अघोषित नियम सा था । जिसका अनुपालन सबका प्रिय विकल्प सा हो गया था । हां कभी कभी प्रकरण वश इस बात को एहसान की सूची में एक और मेरिट बढ़ाने के लिए जोड़ ही दिया जाता था ।
तो अब हम इस कहानी के मुख्य किरदार पर आते हैं , तमाम भूमिका बिना उसके वर्णन के अधूरी ही है । यह पात्र है राम सुमिरन ....... नाम लिखते ही एक धूमिल किन्तु वास्तविक अक्स जेहन में घूम जाता है - औसत कद काठी का अधेड़ व्यक्ति खिचड़ी बाल लेकिन कभी भी कंघी के बिना बाल नहीं दिखे । एक सीधी रेखा कपाल के वाम भाग से पीछे तक जाती हुई । यह अनवरत फेरे गए कंघे का ही परिणाम थी । चेहरे में न तो कोई चमक और नहीं कोई बुझापन , मुझे नहीं याद आता कि कभी हमने उन्हें बिना क्षौर के देखा हो । आम भारतीय ग्रामीणों की तरह मूछें न छोटी न बड़ी ऊपर से प्रयास पूर्वक कतरी गई । आंखे थीं तो छोटी पर खुद को विशिष्ट आभासित कराने के लिए हमेशा अपने आकार से अधिक खुली हुई , होंठो के पतले होने से गुस्से युक्त चेहरा । जो उनका अपना अलग तरीका भी था । छोटी गर्दन , एक खूब नील टीनोपाल से ओत प्रोत बाजू वाली बनियान , नीचे टांडा टेरीकॉट की नथी हुई चारखाने की लुंगी , जो कभी घुटने तक तो कभी एड़ी तक झूलती रहती । अमूमन जब वह अपनी बात किसी को मनवाने में विफल होते ( जो हमेशा ही होता था ) तो लुंगी बार बार एड़ी से घुटने तक आ ही जाती थी । राम सुमिरन पेशे से स्कूल मास्टर थे ।
मिसिर बैठे हैं आग झोंकने ,आज दोनों कराहों पर उनका ही गुड़ बन रहा है । उधर से मास्टर सायकिल की घंटी बजाते अपनी धोती को बाएं हाथ में पकड़े सायकिल में बिना ब्रेक मारे उतरते हैं और सायकिल के साथ दस पन्द्रह कदम यूं ही दौड़ जाते हैं , मानो सायकिल से उतरने की प्रक्रिया का यह अनिवार्य अंग हो । अब मिसिर तो ठहरे किसान आदमी और मास्टर तो मास्टर अभिवादन कौन करे ?? प्रतीक्षा में ही अभिवादन का समय ख़तम हो जाता है । और बातचीत शुरू हो जाती है । मास्टर अभी सायकिल का दोनों हत्था अपने हाथ में ही पकड़ कर खड़े हैै , उन्हें विश्वास करने में समय लग रहा है कि कहीं एक हाथ से सायकिल पकड़ने पर फिर से आगे न बढ़ जाए । "तो आज आपकी बारी है महाराज " कहते हुए मास्टर अहाते में चले गए । अहाते के दरवाजे पर लटकती सुंदरी और लता पुष्प से बचते हुए ।
स्कूल वाला परिधान तो बदल गया है पर ढीले चैन वाली घड़ी अभी भी बाएं हाथ में सरक रही है । मास्टर उसे 24×7 पहने रहते थे । शाम ढल रही थी , दिन वैसे भी दस घंटे का होता था उस पर भी सूरज धुंध में बहुत जल्दी छुप जाता था । कुहासे की धुंध फैलना शुरू हो गई थी , और शुरू हो गई मास्टर की अंतहीन राजनीतिक गाथा । पश्चिम बंगाल उनका सबसे प्रिय राज्य था , और ज्योतिबसु उनके पसंदीदा मुख्यमंत्री । अगर वह जिले काडर की नौकरी न करते होते तो कोलकाता में ही बस जाते । और वहीं सेवा देते । कुल मिलाकर मास्टर वामपंथी विचारधारा के पोषक थे । आम वामपंथियों की तरह जिन्हें सारी सृष्टि ही उनके खिलाफ लगती है । पर उनको खुद भी अपनी अंतिम संतुष्टि का स्तर नहीं पता होता । शायद वह हमेशा खुद को सही ठहराने की अंतहीन प्रक्रिया में नधे रहना ही पसंद भी करते हैं । भारत में अभिव्यक्ति की आजादी भी तो कोई चीज है । और हथियार भी । वामपंथ भी एक हथियार ही था मास्टर के लिए । मुझे याद है कि चुनाव के दौरान वह अकेले एक जगह मतदाता सूची लिए बैठे रहते थे। और सारे लोगों को हिकारत भारी नजरों से देखते रहते थे ।
भट्ठे के चारों तरफ काफी लोग इकट्ठे हैं , मास्टर बोल रहे हैं , सब सुन रहे हैं , मास्टर को जीभ के अलावा कुछ भी चलाना नहीं पसंद था , घर में तो वह कोई भी किसानी का काम नहीं करते थे । और न ही कोई कुछ कहने की हिमाकत ही करता । राजनीति की चर्चा छिड़ी हो तो मास्टर पूरी रात जागकर वामपंथ को सही और सारी राजनीतिक विचारधारा को गलत ठहराने के पक्षधर थे । मास्टर न तो खुद कोई किसानी का काम करते और न ही अपने बेटे को करने देते । दो बेटियां और एक बेटा था उनका । बेटियां तो रसोई में कुछ हाथ चला भी देती थीं लेकिन बेटा पिता के कदमों पर ही अग्रसर था । मिसिर का बड़ा बेटा जो इस समय भट्ठे के किनारे बैठकर मही छान रहा था , उसे भी अकर्मण्यता की सीख देने में मास्टर को कोई गुरेज न था । उनका मानना था कि पढ़ने वाले बच्चों को कोई भी घरेलू काम नहीं करना चाहिए । इससे उनकी पठन क्षमता प्रभावित होती है । और इसका पूरा पालन करते देख अपने बेटे कुलभास्कर पर उनको पूरा घमंड भी था ।
कुलभास्कर की स्कूल शिक्षा पूरी हुई थी , मास्टर ने अपने तथाकथित ऊंचेआदर्श के अनुसार उसे राजधानी भेज दिया । बोर्डिंग में माध्यमिक और पश्चात कॉलेज की शिक्षा के दौरान उसका गांव आना बहुत ही कम हो गया , न के बराबर । मास्टर ने उसे कभी पैसे की कमी न होने दी । कानून की पढ़ाई के दौरान कुलभास्कर की अपने एक सहपाठी छात्रा से अधिक मित्रता हो गई । अधिक मित्रता ज्यादा ही प्रगाढ़ हो गई । इतनी की एक दिन जब मास्टर जी राजधानी गए थे तब कुलभास्कर ने उन्हें उनकी बहू से मिलवा दिया और ये भी बता दिया कि यह निर्णय अंतिम है , आपको जो भी लगे । मास्टर जी एकदम सन्न । बोल नहीं फूटे उनके । कई बार मुंह चलाने के बाद भी आवाज नहीं निकली , जैसे कोई जानवर जुगाली करे और ग्रास बाहर ही न आए । पानी भी नहीं पिया मास्टर ने उल्टे पांव वापस हो लिए । भारी मन से । भारी क्या मानों दब से गए हैं । खिन्न । अन्मन्यस्क...
अजी सुनती हो , कहकर मास्टर बिस्तर में समा गए । न तो कुछ बताया और न ही पत्नी ने कुछ पूछा । अब मास्टर बड़े दुखी रहने लगे । एक ही बेटा था । उसके पास भी नहीं जा सकते थे । बेटे की स्वेच्छा से शादी को मास्टर पचा नहीं पा रहे थे । और न ही किसी से अपना दुख कह ही पा रहे थे । हमेशा दूसरों को कमतर आंकने वाले सुमिरन मास्टर खुद से ही मुंह चुराने लगे थे । बहू ने साफ साफ कह दिया था न तो गांव जाएंगे । और न तो बाबू जी के साथ यहीं रहेंगे । कूलभास्कर की जाने क्या मज़बूरी थी , शर्तें मान चुका था ।
कुलभास्कर की शादी को सात साल हो गए थे । और इतने ही साल मास्टर को सेवानिवृत्त हुए भी । एक बेटा और एक बेटी भी हो गई थी । पर मास्टर को वहां जाना अपमान लगता था , पर साथ साथ नई पीढ़ी का मुंह देखने की लालसा भी हुलस रही थीं । जब एक दिन बहू स्कूल गई थी तो मास्टर राजधानी जाकर बच्चों को देख आए थे । पर कुलभास्कर ने पिता से कोई बात नहीं की । बूढ़े और थके कदम लड़खड़ाते हुए देहरी से बाहर निकल रहे थे । इतने अपमान के बाद भी मास्टर को मूलधन खोने का उतना विषाद नहीं था जितना ब्याज का । फूल जैसे बच्चे .... आंखों में भरे आंसुओं में वह भी धुंधला रहे थे ।
सड़क के किनारे ट्री गार्ड की ओट में एक बूढ़ा अपने जीवन की उपलब्धियां गिन रहा था । सन्न सन्न ट्रक की आवाजाही के बीच .... ट्रैक पर फक फक धुंआ उड़ाती रेलगाड़ी की धमक से जमीन थरथरा रही थी । इसका आभास बुड्ढे को हो रहा था । सूरज घूम गया था छाया हट गई थी धूप चेहरे पर आने लगी थी । दुपहर की धूप । तप्त लेकिन सुहानी । सड़क पार करके पटरी के किनारे किनारे रेलवे स्टेशन तक खुद को घसीटते हुए पंहुचा गया था वह , मानो कोई मास्टर जी का मार्ग निर्देशन कर रहा हो । ट्रेन के आने बैठने और उसके स्टेशन तक पहुंचने की बात मास्टर को याद नहीं । जब सब के उतरने की हलचल से उनकी तंद्रा भंग हुई तो खुद को अपने गांव के स्टेशन पर पाया । मास्टर जी थोड़ा विश्राम के लिए लोहे की सर्द बेंच पर बैठ गए । वैसे भी किसी को पता न था कि आज मास्टर जी कहां जा रहे हैं । तो किसी के आने का तो सवाल ही नहीं उठता था । इंजन ने सीटी दी ट्रेन घर्षण के साथ हिली और आगे के सफर पर । देर तक पटरियां चीं चिं ची की ध्वनि करती रहीं । सामने से ट्रैक खाली हो जाने से सर्द हवा सीधी लगने लगी । चारों तरफ सन्नाटा , आज की यह आखिरी ट्रेन थी । जो दुशाला मास्टर जी ओढ़े थे अब वह नाकाफी लगने लगी । ठंड अधिक थी तिस पर सांय सांय हवा , और लोहे की नग्न बेंच । न जाने नींद आयी या मूर्छा , कुछ भी ज्ञात नहीं । पर झोले को सिर के नीचे दबाए और सफेद दुशाले को ओढ़े वह बूढ़ा अतीत के चिंतन को तज कर क्रूर वर्तमान से जूझता हुआ खुद को कमजोर और थका सा पा रहा था । वह ऐसी डगर पर था , जहां मंजिल की ललक होती ही नहीं बस अनासक्त भाव से कदम खुद बखुद चलते रहते हैं ।
सुबह शहर जाने के लिए यात्री जब स्टेशन पर आते हैं तो उनकी नजर उस एक मात्र बेंच पर जाती है । एक बूढ़ा जिसका सर चद्दर के साथ नीचे लटका है , उसके गले में झोले का एक सिरा फंसा हुआ है । पैर बेंच की पाइप में उलझे से हैं । दो कुत्ते झोले में रखी एक सत्तू की पोटली के लिए झगड़ रहे हैं । भीड़ देखकर कुत्ते पोटली लेकर नदारत हो गए । रह गई तो लोहे कि ठंडी बेंच और उसपर बेंच के तापमान से एकाकार होता अभागा बूढ़ा । रात की ठंड ने बूढ़े को उसके लौकिक शरीर से मुक्त कर दिया था । झोले में एक 'बाजू वाली बनियान , एक सलवटों वाली लुंगी , एक पुरानी कंघी और थी एक पुरानी बन्द घड़ी । एक पोटली भी थी जब खोली गई तो उसमे चमकदार थैले में दो नए कपड़े थे । एक लाल फूलदार फ्रॉक और एक टाई वाला बच्चों का कोट पैंट ........
घरवाले आ चुके थे , उनकी देह को गांव लाया गया , जिन लोगो से सुमिरन ने कभी सीधे मुंह बात नहीं की वही आज उन्हें कांधा दे रहे थे । कुल भास्कर को संदेशा भिजवाया गया । उसे नहीं आना था नहीं आया । शायद सुमिरन ने उसे इतना एकाकी और आत्मकेंद्रित बना दिया था कि उसे यह सब भी फिजूल ही लग रहा था । और तो और उसने कहला भेजा कि अंतिम संस्कार और उससे जुड़े भोज आदि को करने की कोई जरूरत नहीं है । यह सब सामाजिक अतिवादिता है । जिसमे उसको तनिक भी आस्था नहीं । इसका ज्ञान भी उसने अपने वामपंथी पिता की दिव्य विचारधारा से ही प्राप्त किया था । सुमिरन का अंतिम संस्कार उनके कुटुंबी जनों ने कर दिया पर त्रयोदशाह भोज न किया गया , कारण क्या था पता नहीं ।
जिस आम के पेड़ के नीचे आंशिक अंत्य्य कर्म हुआ था , वहां आज भी गांव के लोग जाने से कतराते हैं , उनकी विधवा झिनका ने एक बार दुपहरी में वहां सुमिरन मास्टर को सिर नीचे किए बैठे देखा था । वही तहमद ,बनियान और घड़ी के साथ ...........

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